तुझको मेरी न मुझको तेरी ख़बर जायेगी,
#ईद अब के भी दबे पाँव गुज़र जायेगी ।
इस खौफ़ के मौसम में इक उम्मीद मुबारक,
सब अपनों परायों के लिए ईद मुबारक ।
कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में,
कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है ।
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा,
कि तिरे यार को हम तुझ से मिला देते हैं ।
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ईद आई तुम न आए क्या मज़ा है ईद का,
ईद ही तो नाम है इक दूसरे की दीद का ।
कल अगर ईद का दिन होगा तो क्या पहनेंगे,
चांद से कह दो___के तैयार नहीं हैं हम लोग ।
आ जाए वो मिलने तो मुझे ईद-मुबारक
मत आए ब-हर-हाल उसे ईद-मुबारक ।
ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम,
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है ।
इक ज़माना था ईद आने पर
हम मनाते थे रूठने वाले ।
कशमकश में हूं किसे अपनाऊं किसकाे छाेड़ दूं…
इक तरफ़ बच्चाें की ख़ुशियां इक तरफ़ ग़म ईद का ।
मैंने हमेशा तुम्हारा ख़याल रखा है,
आप को मालूम है कल ईद है ।
इक अंधा झोंका आया था
इक ईद का जोड़ा मसल गया ।
ईद से ऐसा नहीं है कि सरोकार नहीं,
अपनी किस्मत में मगर चाँद का दीदार नहीं ।
ईद आई तुम न आए क्या मज़ा है ईद का
ईद ही तो नाम है इक दूसरे की दीद का
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
जिस के आने की ख़ुशी हो वो न आवे अफ़्सोस ।
ईद का चाँद तुम ने देख लिया
चाँद की ईद हो गई होगी ।
ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए,
सब गले मिलने लगे जब कि वो जल्लाद आया ।
माह-ए-नौ देखने तुम छत पे न जाना हरगिज़,
शहर में ईद की तारीख़ बदल जाएगी ।
ईद का दिन तो है मगर साकिब’
मैं अकेले तो हँस नहीं सकता ।
आईना अगर कह रहा है ईद मुबारक़
पत्थरों को भी रुख़, बदलना चाहिए ..
ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है ।
हम ने तुझे देखा नहीं क्या ईद मनाएँ,
जिस ने तुझे देखा हो उसे ईद मुबारक ।
ईद का दिन है सो कमरे में पड़ा हूँ “साकिब’
अपने दरवाज़े को बाहर से मुक़फ़्फ़ल कर के ।
तझसे बिछड़ा तो होश नहीं
कब चाँद हुआ कब ईद हुई याद नहीं ।
महक उठी है फ़ज़ा पैरहन की ख़ुशबू से
चमन दिलों का खिलाने को ईद आई है ।
मिल के होती थी कभी ईद भी दीवाली भी
अब ये हालत है कि डर डर के गले मिलते हैं ।
दस्तूर है दुनिया का मगर ये तो बताओ
हम किस से मिलें किस से कहें ईद मुबारक ।
तुझ को मेरी न मुझे तेरी ख़बर जाएगी
ईद अब के भी दबे पाँव गुज़र जाएगी ।
ईद आई तुम न आए क्या मज़ा है ईद का,
ईद ही तो नाम है इक दूसरे की दीद का ।
ईद का दिन तो है मगर ‘साकिब’
में अकेले तो हँस नहीं सकता ।
कितने पलकों से फिज़ाओं में सितारे टूटे,
कितने अफसानो का उनवान बना ईद का चांद ।
कशमकश में हूं किसे अपनाऊं किसकाे छाेड़ दूं…
इक तरफ़ बच्चाें की ख़ुशियां इक तरफ़ ग़म ईद का ।
इक अंधा झोंका आया था
इक ईद का जोड़ा मसल गया ।
इक ज़माना था ईद आने पर
हम मनाते थे रूठने वाले ।
अपने रोज़ा-दारों को,
ईद का चाँद दिखाओ अब ।